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Saturday, June 18, 2016

ड्रग्स,नशा और फ़िल्में

-सौम्या अपराजिता
ड्रग्स,स्मोकिंग और अल्कोहल का नशा....व्यक्तित्व ही नहीं,समाज को भी पतन की ओर ले जाता है। नशे के दौरान मिलने वाला क्षणिक आनंद जीवन भर का नासूर बन जाता है। हमारी फिल्मों में भी नशे के इसे बुरे प्रभाव को दिखाने की समय-समय पर कोशिश की गयी है। फ़िल्म निर्माता-निर्देशकों ने अपने-अपने तरीकों से नशा उन्मूलन के सन्दर्भ में प्रयास किए है। अनुराग कश्यप निर्मित और अभिषेक चौबे निर्देशित 'उड़ता पंजाब' इसका ताजा उदहारण है जिसमें पंजाब में ड्रग्स की भीषण समस्या पर प्रकाश डालने की महत्वपूर्ण कोशिश की गयी है। 'उड़ता पंजाब' से पूर्व भी नशे पर आधारित कई फिल्मों ने सिल्वर स्क्रीन पर दस्तक दी है।
1971 में आई फिल्म 'हरे रामा हरे कृष्णा' संभवतः पहली बार ऐसी फ़िल्म थी जिसमें ड्रग्स की लत के बुरे प्रभाव को दिखाया गया था। जीनत अमान पर फिल्माया गया गीत 'दम मारो दम' ड्रग्स में डूबे युवाओं की मनोदशा को सही मायनों में दर्शाता है। अगर कहें कि देव आनंद अभिनीत यह फ़िल्म ड्रग्स के प्रति आम दर्शकों में जागरूकता का संचार करने वाली पहली फ़िल्म थी,तो गलत नहीं होगा। इस फ़िल्म के प्रदर्शन के कुछ वर्ष बाद आयी 'चरस' में भी ड्रग्स के मुद्दे को उठाया गया था। हालांकि,धर्मेन्द्र और हेमा मालिनी अभिनीत इस फ़िल्म में ड्रग्स की स्मगलिंग पर प्रकाश डाला गया था। अवैध तरीके से ड्रग्स की स्मगलिंग कर देश के युवाओं को दिग्भ्रमित करने वाले गिरोह के पर्दाफाश की कहानी को इस फ़िल्म में कहा गया था।
नयी पीढ़ी के फिल्मकारों ने भी ड्रग्स के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रभाव को समय-समय पर दिखाने की कोशिश की है। कुछ वर्ष पूर्व आई सुदीप्तो भट्टाचार्य निर्देशित और बिपाशा बसु अभिनीत फ़िल्म 'पंख' में ड्रग्स के दुष्प्रभाव को दिखाया गया था। हालांकि,इस फ़िल्म में ड्रग्स की लत से पीड़ित किशोर के मनोविज्ञान पर अधिक प्रकाश डाला गया था। फ़िल्म का किशोर नायक नशीली दवाओं की डोज़ लेकर बिपाशा बसु की फंतासी करता है। उधर मधुर भंडारकर ने 'फैशन' में कंगना रनोट द्वारा अभिनीत शोनाली बोस के किरदार के जरिये यह दिखाने की कोशिश की कि किस तरह ड्रग्स की आदत एक सफल व्यक्ति को गुमनामी और हताशा के गर्त में ले जा सकती है।
अनुराग कश्यप ने 'उड़ता पंजाब' से पूर्व भी अपनी फिल्मों की कहानी में नशा और उसके प्रभाव को दिखाने की कोशिश की है। जहाँ 'देव डी' में देवदास बने अभय देओल बचपन की प्रेमिका पारो की शादी के बाद ड्रग्स के नशे में चूर हो जाते है,वहीँ 'नो स्मोकिंग' में जॉन अब्राहम धूम्रपान के नशे से दूर होने की कोशिश में दिखते हैं। अनुराग निर्मित एक और फ़िल्म 'शैतान' में ड्रग्स के बुरे प्रभाव के इर्द-गिर्द कहानी बुनी गयी थी। फ़िल्म में नशीली दवाओं और शराब में डूबे पांच दोस्त नशे में चूर हो कर अपनी कार से एक स्कूटर सवार को कुचल डालते हैं। नशे के प्रभाव में घटी इस घटना के बाद उनके पश्चाताप की कहानी फ़िल्म में कही गयी है।
विशाल भारद्वाज निर्देशित फ़िल्म 'सात खून माफ़' के एक हिस्से में भी ड्रग्स के मुद्दे को उठाया गया था। फ़िल्म में जॉन अब्राहम ने प्रियंका चोपड़ा के दूसरे पति की भूमिका निभायी थी जो नशे में लिप्त है। फ़िल्म में प्रियंका ने जॉन के नशे की लत छुड़ाने की बेहद कोशिश की,लेकिन कामयाब नहीं होने पर ड्रग्स का ओवरडोज़ देकर उसे जान से मार डाला।
कुछ वर्ष पूर्व प्रदर्शित हुई 'दम मारो दम' में गोवा की पृष्ठभूमि पर आधारित ड्रग्स माफिया की कहानी को दिखाया गया था। उधर सैफ अली खान अभिनीत जॉम्बीज पर आधारित फिल्म 'गो गोवा गॉन' भी पूरी तरह ड्रग्स पर आधारित थी। फिल्म तीन युवाओं की कहानी है जो जिंदगी के मजे लेने के लिए गोआ छुट्टियां मनाने जाते हैं। इन तीनों युवा दोस्तों का मानना है कि जिंदगी में एक्साइटमेंट काफी जरूरी है और इसलिए गोआ में तीनों दोस्त नशे का सहारा लेते हैं। 
हालांकि,हमारी फिल्मों में ड्रग्स और नशे के बुरे प्रभाव को समय-समय पर दिखाया गया है,मगर इस सन्दर्भ में जागरूकता लाने के लिए ऐसी फिल्मों के निर्माण की जरुरत है जो फ़िल्मी मसाले से इतर इस गंभीर समस्या की गहराई में जाकर प्रभावशाली तस्वीर पेश करे। उम्मीद है...तमाम अड़चनों को झेलने के बाद रिलीज हुई फ़िल्म 'उड़ता पंजाब' ऐसी ही फ़िल्म होगी।

नशे के मुद्दे पर आधारित फ़िल्में-

हरे रामा हरे कृष्णा
चरस
जांबाज़
जलवा
फैशन
देव डी
शैतान
पंख
दम मारो दम
गो गोआ गॉन
उड़ता पंजाब

Wednesday, October 9, 2013

संभव हुआ असंभव...

प्रतिदिन प्रतिपल विज्ञान प्रगति कर रहा है। नयी तकनीक दस्तक दे रही है। वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति ने कला माध्यमों को विशेषकर सिनेमा को नए सिरे से संवारा है। फिल्मकारों की कल्पना को नयी उड़ान दी है। सिल्वर स्क्रीन के चरित्रों को थ्री डी अवतार दिए हैं। स्पेशल इफ़ेक्ट की गुणात्मकता से सिनेमा को समृद्ध बनाया है। स्पेशल इफ़ेक्ट से लबरेज  बेहतरीन सिनेमाई अनुभव के लिए अब भारतीय दर्शक हिंदी फिल्मों की तरफ  मुखातिब हो रहे हैं। बदलते वक़्त और तकनीकी समृद्धि के साथ अब हिंदी फिल्मों में भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर के स्पेशल और विजुअल इफ़ेक्ट दर्शनीय हैं।

स्वदेशी तकनीक
स्पेशल इफेक्ट का बुद्धिमत्ता पूर्वक व खूबसूरती से प्रयोग न सिर्फ फिल्मों को संवार सकता है , बल्कि फिल्म के कथानक को हकीकत के और करीब ले जा सकता है।  देर से ही सही , अब हिंदी फिल्मों में भी अच्छे व प्रभावशाली स्पेशल इफ़ेक्ट का प्रयोग होने लगा है। अच्छी बात है कि पिछले कुछ अर्से से इन इफेक्ट को बाहर से आयात करने के बजाय भारत में ही  विकसित किया जा रहा है। विदेशी तकनीशियनों की सहायता से 'रा.वन' के कई शानदार और जानदार स्पेशल इफेक्ट भारत में तैयार किये गए थे। जल्द प्रदर्शित हो रही 'कृष 3' के जबरदस्त विजुअल और स्पेशल इफेक्ट्स की नींव पूरी तरह भारतीय भूमि में ही तैयार की गयी है। रितिक रोशन बताते हैं,'हमने ' कृष 3' के निर्माण में अमेरिका या हॉलीवुड से कोई मदद नहीं ली। सब कुछ पूरी तरह से भारतीय है। वीएफएक्स और स्पेशल इफेक्ट्स भी भारत में ही किए। यह हम सभी के लिए गर्व की बात है।' इससे पहले भी कई हिंदी फिल्मों को  भारतीय तकनीशियनों ने स्पेशल इफेक्ट से सजाया है। इन फिल्मों में 'गायब','जजंतरम ममंतरम' और 'टार्जन द वंडर कार' उल्लेखनीय हैं।

संभव हुआ असंभव
दीगर बात है कि सुपर हीरो पर आधारित फिल्मों की मेकिंग में सुपर तकनीक की दरकार होती है। ऐसी फिल्मों में असंभव को संभव कर दिखाने की चुनौती होती है। इस चुनौती के लिए फ़िल्मकार तैयार भी रहते हैं क्योंकि सुपर हीरो पर आधारित फिल्में दर्शकों को लुभाती रही हैं। ऐसा काम जिसकी कल्पना आम आदमी कर भी नहीं सकता, वह सब सुपर हीरो मिनटों में कर देता है। पर्दे पर अन्याय करने वालों को जब सुपर हीरो अपनी विशेष शक्तियों से हराता है तो दर्शकों को अपनी जीत नजर आती है। यही वजह है कि किसी ना किसी रूप में सुपर हीरो की मौजूदगी भारतीय सिनेमा में हमेशा रही है। हिंदी फिल्मों में सुपर हीरो की कामयाबी का श्रेय रितिक रोशन को जाता है। 'कोई मिल गया' में रितिक के सुपर तकनीक से सजी सुपर हीरो फिल्म की श्रृंखला की शुरुआत हुई,जो तकनीकी प्रगति के साथ और भी उन्नत होती गयी। 'कृष' के बाद 'कृष 3' में सुपर हीरो बने रितिक रोशन विजुअल इफेक्ट्स के माध्यम से एक बार फिर असंभव को संभव करते हुए दिखेंगे। 'कृष3' का सबसे बड़ा आकर्षण इसका उन्नत विजुअल इफेक्ट माना जा रहा है। यही वजह है कि 'कृष3' की पहली झलकियों में कलाकारों से अधिक फिल्म के तकनीकी पहलू को अधिक प्राथमिकता दी गयी।


3 डी दुनिया
'3 डी' तकनीक की लोकप्रियता का आलम यह है कि लगभग हर निर्माता-निर्देशक अपनी फिल्मों को इस आधुनिक और लोकप्रिय तकनीक में ढालना चाहता है। विशेषकर डरावनी फिल्मों के लिए इस तकनीक का भरपूर प्रयोग किया जा रहा है। विक्रम भट्ट द्वारा निर्मित 'हॉन्टेड' और  हाल में प्रदर्शित हुई 'हॉरर स्टोरी 3 डी' इसके उदाहरण हैं। विक्रम कहते हैं, 'मुझे 3डी तकनीक ने अपनी ओर खींच लिया है। यह सबसे हटकर है।' भारत की पहली अंडरवाटर 3डी फिल्म 'वार्निंग' ने भी पिछले दिनों  सिनेमाघरों में दस्तक दी। 3 डी तकनीक के प्रति बढ़ते लगाव की वजह है कि सलमान खान और सुभाष घई जैसे नाम भी इस तकनीक से जुड़ने के लिए आतुर हैं। सुभाष घई कहते हैं,'  वर्तमान में 3-डी फिल्मों का दौर है और मैं नई तकनीक का इस्तेमाल करना पसंद करता हूं। मैं मनोरंजक फिल्में बनाने के लिए जाना जाता हूँ और उसी परंपरा को आगे बढ़ाऊँगा। इतना अवश्य कहूँगा कि मेरी अगली फिल्म 3-डी  होगी।' उधर सलमान खान ने भी अपनी नयी फिल्म 'मेंटल' को 3 डी तकनीक से जोड़ने की इच्छा जतायी है।

..कि पैसा बोलता है
जब तकनीक समृद्ध होगी तो पूंजी निवेश भी अधिक होगा। अपनी फिल्म में आवश्यक स्पेशल इफ़ेक्ट शामिल करने के लिए निर्माता अधिक मात्रा में पूंजी निवेश करने से नहीं घबराते हैं। फिल्म का बजट चाहे जो हो, उसमें दृश्यों का प्रभाव बढ़ाने के लिए विजुअल इफेक्ट और कंप्यूटर ग्राफिक्स का इस्तेमाल आम बात हो गई है। एक वरिष्ठ तकनीशियन बताते हैं, 'आजकल पोस्ट प्रोडक्शन के दौरान निर्देशक के मनचाहे इफेक्ट देने के लिए कंप्यूटर ग्राफिक्स और तकनीक का काफी इस्तेमाल किया जाता है। वीएफएक्स स्टूडियो इस काम के लिए 5 लाख रुपये से लेकर कुछ करोड़ रुपये तक मांग सकता है।' उल्लेखनीय है कि करीब 150 करोड़ रुपये में बनी 'रोबोट' के कुल बजट का 25 फीसदी हिस्सा वीएफएक्स पर ही खर्च किया गया था। वीएफएक्स ने फिल्म की कहानी लोगों तक आसानी से पहुंचा दी।' गौरतलब है कि 'कृष 3′ के लिए विज़ुअल इफेक्ट का निर्माण शाहरुख़ खान की कंपनी'रेड चिली' ने किया है। जानकारों के अनुसार इस पूरी प्रक्रिया में  26 करोड़ का पूंजी निवेश किया गया है।
तकनीकी प्रगति ने किया बेरोजगार
डिजिटल तकनीक ने सैंकड़ों स्टंट कलाकारों के जीवन को अंधकारमय बना दिया है। फ़िल्मे तकनीकी रूप से जैसे-जैसे उन्नत हो रही हैं, स्पेशल इफेक्ट यानी फ़िल्मों में हैरतअंगेज़ दृश्यों को डिजिटल तकनीक से दर्शाने वाले स्टूडियो की भरमार हो गयी है। इन स्टूडियो ने स्टंट से जुड़े अधिकांश  दृश्यों को आधुनिक तकनीक से फिल्माने की परंपरा शुरू कर दी है। जिस कारण स्टंट कलाकारों के पास रोजगार की कमी हो गयी है। मुंबई में अवस्थित एक स्पेशल इफ़ेक्ट की कम्पनी के मालिक का कहना है,'हाथ से किए जाने वाले और तकनीक पर आधारित फिल्म स्टंट अब ख़त्म हो रहे है क्योंकि अब कंप्यूटर पर यह सब बड़ी आसानी से हो जाता है।'

बनी रहे कलात्मकता
तकनीक के ताने-बाने में बुना सिनेमा दर्शकों को अद्भूत आनंद देता है। जब दर्शक सिल्वर स्क्रीन पर असंभव को संभव होते देखते हैं,तो उन्हें उस सिनेमाई अनुभव के लिए निवेश की गयी पूंजी के सदुपयोग की संतुष्टि होती है।... पर जब कोई फिल्म  कला पक्ष को हाशिए पर रखकर सिर्फ तकनीक के सांचे में ढालकर पेश की जाती है,तो दर्शक निराश होते हैं। वे ठगा-सा महसूस करते हैं। ऐसे में आवश्यक है कि उन्नत तकनीक को सार्थक और मनोरंजक कथानक के इर्द-गिर्द बुना जाए और कला पक्ष की उपेक्षा किए बिना उन्नत तकनीक से सजी फिल्में निर्मित की जाएं तभी हमारा सिनेमा सही मायने में समृद्ध होगा।
-सौम्या अपराजिता