Saturday, May 25, 2013

भारतीय सिनेमा के सौंवे जन्मदिन ( 3 मई )पर विशेष

भारतीय सिनेमा के सौंवे जन्मदिन ( 3 मई )पर विशेष 
-सौम्या अपराजिता 
भारत की समृद्ध संस्कृति का उत्सव है भारतीय सिनेमा। विकास की रेल पर सवार भारतीय अर्थव्यवस्था का लोकप्रिय हिस्सा है भारतीय सिनेमा। आधुनिकता और परंपरा के अनूठे तालमेल को इंगित करते भारतीय समाज का आइना है भारतीय सिनेमा। भारत की तकनीकी समृद्धि की बानगी है भारतीय सिनेमा। सक्षेप में भारतीय सिनेमा 'भारतीयता' का परिचायक है। भारतीय सिनेमा के सौवें जन्मदिन पर सिनेमा के कुछ महत्वपूर्ण पहलूओं पर एक नज़र .....
'समाज' का सिनेमा 
भारतीय सिनेमा की प्रगति सामाजिक विकास के सापेक्ष हुई है। सिनेमा का कथ्य और कथानक सामाजिक जागरूकता के मद्देनज़र बदलते रहे हैं। जब भारतीय सिनेमा की नींव पड़ी उस समय रूढ़िवादिता,अस्पृश्यता और गुलामी की कुंठा ने भारतीय समाज को जकड़ रखा था। यदि उस दौर की फिल्मों पर नज़र डालें तो उनके कथ्य भी समाज के तत्कालीन परिस्थिति को इंगित करते हैं। 1936 में प्रदर्शित हुई उल्लेखनीय फिल्म 'अछूत कन्या' में अस्पृश्यता का दंश झेल रही युवती की कहानी को दर्शकों तक पहुँचाया गया था। देश आज़ाद हुआ और चारो तरफ खुशियों की बानगी थी। सिनेमा भी रंगीन हो चुका था। समाज में कुछ सकारात्मक परिवर्तन तो हुए,पर आजादी के बाद राष्ट्र निर्माण की चुनौती सामने थी। पुरानी सामाजिक समस्याएं अभी भी व्याप्त थीं। सिनेमा ने आजादी की ख़ुशी तो मनायी,पर अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों से मुह नहीं मोड़ा। तभी तो,यदि एक तरफ 'दो बीघा जमीन','नीचा नगर','मदर इंडिया' और 'दो आँखें बारह हाथ' जैसी सामाजिक सरोकार वाली फिल्में प्रदर्शित हुईं तो दूसरी तरफ 'मधुमती' और 'श्री 420' जैसी मनोरंजक फिल्में। चेतन आनंद की ‘नीचा नगर’ में कामगारों और मालिकों के संघर्ष को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया गया था। वी. शान्ताराम, विमल राय, राजकपूर, गुरुदत्त ने ऐसी फिल्मों को नई ऊंचाई प्रदान की।' सुजाता'  में विमल राय ने देविका रानी से अधिक प्रामाणिक अछूत कन्या (नूतन) प्रस्तुत की। दरअसल,आजादी के बाद की फिल्मों के कथ्य में सामाजिक समस्याओं के साथ ही अंग्रेजों के प्रति घृणा और अमीर-गरीब के बीच की खाई को भी महत्वपूर्ण स्थान मिलता था। इस सन्दर्भ में अभिषेक बच्चन कहते हैं,'हमारे फिल्म निर्माताओं ने हमेशा समाज में होने वाले परिवर्तन को ध्यान में रखा है। 1950-60 की फिल्मों में खलनायिका हमेशा गोरी हुआ करती थीं क्योंकि वह दौर आजादी का था। उस समय देश के लोग गोरी चमड़ी वाले लोगों को घृणा की दृष्टि से देखते थें। जो भी अनैतिक कार्य हुआ करता था,उसका दोष उनपर ही डाल दिया जाता था।' अभिषेक आगे कहते हैं,'सोशलिस्ट इकोनोमी के कारण अमीर लोगों के प्रति अधि आबादी का नजरिया अच्छा नहीं था।उस समय गरीब और अमीर की लड़ाई चलती रहती थी।यही वजह है कि उस समय गरीब लड़के और अमीर लड़की की लव स्टोरी बहुत पसंद की जाती थी जिसमें अंत में गरीब लड़के की जीत होती थी।'आजादी के तीन-चार दशक बीतने के बाद हालात कुछ सुधरे। तकनीकी प्रगति हुई। भारत ने विकास की तरफ कदम उठाया,तो कुछ नयी चुनौतियाँ भी सामने आई। व्यवस्था की कमियों से आम आदमी को दो-चार होना पड़ा। रोजमर्रा के जीवन में असंतुष्ट आम आदमी मुखर होने लगा। व्यवस्था से जूझते आम आदमी की कुंठा और क्रोध को फिल्मकारों ने समझा और उसे अपनी फिल्म का मुख्य कथ्य भी बनाया। परिणामस्वरूप,दीवार और जंजीर जैसी फिल्मों का निर्माण हुआ। इस दौर का नायक एग्रेसिव था। वह अकेले अपने दम पर व्यवस्था से लड़ने की हिम्मत रखता था। अमिताभ बच्चन कहते हैं,'उस दौर में भारत वर्ष के नौजवानों में आक्रोश था।सलीम-जावेद ने उसी आक्रोश को आवाज दी थी। लोगों को ऐसे नायक को देखना अच्छा लगता था जो सिस्टम के खिलाफ खड़ा होता था।'उसी दौर में  श्याम बेनेगल की ‘अंकुर’ , ‘मंथन’, गोविंद निहलानी की ‘आक्रोश’, ‘अर्धसत्य’ से समाज की कई ज्वलंत समस्याओं से रूबरू कराया। इस लिहाज से स्मिता पाटील अभिनीत ‘चक्र’ मील का पत्थर साबित हुई। वक़्त बीता . . आजादी की स्वर्ण जयंती के साथ ही भारतीय समाज आधुनिक हो चला। अब लड़कियों और लड़कों में भेदभाव कम होने लगे। माता-पिता अब अपने बच्चों के प्रेम सम्बन्ध को लेकर काफी हद तक उदार हो गए। गर्ल फ्रेंड-बॉयफ्रेंड की अवधारणा भी आम हो गयी। फिल्मों में इस सामाजिक परिवर्तन का असर दिखा। नायक-नायिका के प्रेम सम्बन्ध में अब परिस्थितियां या उनका करियर खलनायक होने लगा ना कि उनके भाई या पिता। युवक-युवतियों के लिए सफलता की  रेस में दौड़ना अहम् हो गया  ना कि प्रेम-रस में डूबना। 'थ्री इडियट्स' में मौजूदा युवा पीढ़ी के इसी पक्ष का वर्णन किया गया है। सक्षेप में, सामाजिक मान्यताओं, रूढ़ियों, अंधविश्वासों को खत्म करने में भारतीय सिनेमा ने अपनी अहम भूमिका अदा की है। साथ ही बदलते हालात में उत्पन्न होती समस्याओं से निपटने के लिए लोगों को तैयार भी किया है। 
सिनेमा का 'अर्थ' 
 दादा साहेब फाल्के ने अपनी पत्नी के गहने गिरवी रखकर 'राजा हरिश्चन्द्र' का निर्माण किया और इस तरह भारतीय सिनेमा की नींव पड़ी। फिल्म निर्माण की प्रक्रिया को आगे बढाने के लिए दादा साहेब फाल्के ने नासिक में हिंदुस्तान फिल्म कंपनी स्थापित की। उस समय फिल्म इंडस्ट्री को कॉटेज इंडस्ट्री की संज्ञा दी जाती थी। उस दौर में फिल्म निर्माण  फायदेमंद व्यवसाय नहीं था। धीरे-धीरे स्टूडियो सिस्टम की शुरुआत हुई। फिल्म निर्माण की प्रक्रिया को सुनियोजित करने के लिए स्टूडियो सिस्टम की शुरुआत हुई। एम्पिरिअल स्टूडियो,वाडिया मूवी टोन,रणजीत स्टूडियो,प्रभात स्टूडियो,बॉम्बे टॉकीज़ स्टूडियो स्थापित हुए। परिणामस्वरूप,फिल्म निर्माण में गति आई। कुछ और स्टूडियो स्थापित किये गये… आर के स्टूडियो,महबूब स्टूडियो,फिल्मालय,राजकमल और कमलिस्तान स्टूडियो। जैसे-जैसे अधिक फिल्में बननी शुरू हुई,अभिनेता-अभिनेत्रियों को स्टार स्टेटस मिलने लगा। उन्होंने पारिश्रमिक बढाने की मांग की। अतः फिल्म निर्माताओं को व्यवसायियों का सहारा लेना पड़ा। फिल्मों में कोरपोरेट जगत का निवेश प्रारम्भ हुआ। फिल्म निर्माण कंपनिया गठित की गयीं जिनमें मुक्त आर्ट्स,यशराज फिल्म्स,वायोकॉम18,रिलायंस एंटरटेनमेंट,यु टीवी मोशन पिक्चर्स,एरोज़ इंटरनेशनल,बालाजी टेलेफिल्म्स उल्लेखनीय हैं।  कोरपोरेट जगत के फिल्म जगत में प्रवेश के बाद फिल्म जगत को इंडस्ट्री का दर्ज़ा मिल गया। . . और फिल्म इंडस्ट्री औपचारिक रूप से भारतीय अर्थव्यवस्था का हिस्सा बन गयी। निर्माता-निर्देशक श्याम बेनेगल कहते हैं,'जिस तरह कोरपोरेट कल्चर को सिनेमा इंडस्ट्री ने अपनाया है उससे आर्थिक अनुशासन पैदा हुआ है। पिछले सौ वर्षों में फिल्म इंडस्ट्री में आर्थिक वृद्धि की दर का औसत निकाले तो वह तीन से छह प्रतिशत के बीच रही है।'' गौरतलब है कि 1000 रुपये के राजस्व से शुरू हुआ हिंदी फिल्मों का व्यवसाय लगभग  93 अरब रुपये तक पहुंच चुका है।  एक सर्वे के अनुसार फिल्म इंडस्ट्री प्रति वर्ष भारतीय अर्थव्यवस्था में लगभग 1.5 बिलियन का योगदान देती है। 
'तकनीक' और सिनेमा   
 तकनीकी विकास के साथ-साथ भारतीय सिनेमा  भी समृद्ध और परिस्कृत हुआ। जब भारतीय सिनेमा की नींव पड़ी थी,तब श्वेत-श्याम रंग में चलती-फिरती तस्वीरों से कही जाने वाली कहानी कहने का माध्यम थीं फ़िल्में। उस दौरान मूक फिल्में बना करती थीं जिसमें कलाकारों के हाव-भाव से दर्शकों तक कहानी संप्रेषित की जाती थी। 'राजा हरिश्चन्द्र' से मूक फिल्मों के निर्माण का दौर शुरू हुआ और ख़त्म हुआ 'आलम आरा' के प्रदर्शन के बाद। 'आलम आरा' पहली बोलती फिल्म थी।  ध्वनि के समावेश के बाद चलती-फिरती तस्वीरें बोलने लगीं। धीरे-धीरे उन तस्वीरों में रंग भी भरने लगा। और रंगीन फिल्मों का दौर शुरू हुआ। 1937 में पहली रंगीन फिल्म बनी 'किसान कन्या'। रंगीन फिल्मों ने भारतीय सिनेमा का दायरा बढ़ाया। अब भारतीय फिल्में विदेशी धरती पर भी अपनी धमक देने लगीं। इस प्रक्रिया में भारतीय सिनेमा फिल्म निर्माण की नयी तकनीक से परिचित हुआ। डिजिटल तकनीक,डोल्बी साउंड,स्पेशल इफ़ेक्ट और एनीमेशन से भारतीय फ़िल्मकार परिचित हुए। परिणामस्वरूप भारतीय सिनेमा तकनीकी रूप से समृद्ध होने लगा। स्मोकिंग आर्क लाइट, बड़े-बड़े प्रोजेक्टर, 40 फीट की ऊंचाई पर कैटवॉक करते लाइटबॉय, शोर करती एडिटिंग मशीनें,35/16 एमएम के साउंड टेप इतिहास में दफन हो गए ।  डिजिटल और कम्प्यूटर संचालित तकनीक की पृष्ठभूमि में लाइटिंग, बैकग्राउंड और बहुआयामी दृश्यों के जरिये कहानी कही जाने लगी।  डिजिटल प्रोजेक्शन सिस्टम, बिना टेप वाले 3डी कैमरे और कम कीमत पर उपलब्ध तकनीक ने सिनेमाई ढांचे को बदल दिया है।भारतीय सिनेमा की तकनीकी सम्रद्धि का नमूना है भारतीय साउंड डिज़ाइनर,मिक्सर और साउंड एडिटर रसूल पोकुट्टी को मिला प्रतिष्ठित ऑस्कर सम्मान । उन्हें स्लमडॉग  मिलिनियर में तकनीकी योगदान के लिए ऑस्कर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। कई पड़ावों से गुजरता भारतीय सिनेमा अब थ्री डी (त्रिआयामी) पद्धति को भी आजमा चुका है। वे  चीजें जो वास्तविक जीवन में असंभव थीं,अब सिनेमा के सुनहरे  पर्दे पर साकार हो रही हैं ।
सिनेमा और 'संस्कृति' का तान-बाना 
कला और तकनीक का जो संगम भारतीय फिल्मों में दिखता है, वह अपने आप में दुर्लभ है। प्रत्येक वर्ष लगभग 800 फिल्में बनाने वाले हमारे सिनेमा उद्योग ने निवासी-अनिवासी भारतीयों के साथ-साथ दुनिया के अन्य लोगों में भी भारतीय जीवन शैली एवं मूल्यों के प्रति एक नजदीकी रिश्ता कायम किया है। भारतीय सिनेमा के कर्णधारों ने हमेशा इस बात का ध्यान रखा कि भारत बहुसांस्कृतिक और बहुभाषी देश है। यही वजह  है कि फिल्मों में विभिन्न शास्त्रीय और लोक परम्पराओं और संस्कृति का यथासंभव समावेश किया गया। फिल्मकारों ने इस बात का ध्यान रखा कि फिल्मों द्वारा जो संदेश वे दर्शकों तक पहुंचाना चाहते हैं, उन्हें लोकप्रिय ढंग से पहुंचाया जाए। उन्होंने फिल्म की भाषा, गीत, संगीत और संवादों पर भी खास ध्यान दिया। अपनी व्यापक पहुंच ने सिनेमा को भारत जैसे बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक परंपरा वाले देश के लोगों के लोकरंजन का सर्वाधिक लोकप्रिय माध्यम बना दिया है। भारतीय सिनेमा का भारतीय संस्कृति से तादात्म्य स्थापित हो गया है। भारतीय सिनेमा उभरते  हुए भारत की सांस्कृतिक पहचान बन गयी है। समाजशास्त्री अमित  शर्मा के अनुसार,'भारतीय संस्कृति के लोकपक्ष के संरक्षण और संवर्द्धन तथा लोकनीति के असंतुलित पक्षों की समीक्षा में भारतीय सिनेमा की भूमिका भारतीय राज्य और विश्विद्यालयों से ज्यादा  रही है।' भारतीय अस्मिता की झलकियाँ हमें सिनेमा में मिलती है। भारतीय सिनेमा भारतीयता की अनूठी पहचान है। भारतीय संस्कृति और विदेशी संस्कृति के बीच सिनेमा एक सेतु का काम कर रहा है। भारतीय प्रवासी नागरिक भारत से दूर रहकर भी फिल्मों में समग्र भारत को देखकर राहत पाते है। वे फिल्मों के जरिये भारतीय संस्कृति से खुद को जुड़ा  हुआ महसूस करते  हैं। अतः विदेशी एवं प्रवासी भारतीयों के सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य मे सिनेमा महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है । रोचक है कि भारत को करीब से जानने की जिज्ञासा मे विदेशी हिंदी सिनेमा देखते है। हिंदी भाषा के विकास में भी सिनेमा का अभूतपूर्ण योगदान है। उल्लेखनीय है कि सिनेमा ने विदेशी और प्रवासी भारतीयों को सहज समझ में आनेवाले और उच्चारण करनेवाली हिंदी सिखाई। संस्कृत निष्ठ अबूझ, अपरिचित और वजनदार शब्दो को हटा कर वह भाषा और वह शब्द दिये जो आम और खास व्यक्ति की जुबान पर सहज चढ भी जाते है और वे आसानी से बोल भी पाते है। निष्कर्षतः विश्व संस्कृति से संवाद स्थापित करने के लिए भारतीय सिनेमा ने अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों एवं विविधता को प्रदर्शित करने का असीम प्रयास किया है। 
भारतीय सिनेमा के 100 वें जन्मदिन पर श्रेष्ठ 10----सूची 

10 @100

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