Monday, May 14, 2012

बोझिल पलकों में नींद कहाँ ?


         'निंदिया न आये , रैना बीत जाये' - आज के संश्लिष्ट ,उलझन भरे,तनावपूर्ण जीवन में आम शिकायत है. फिर, आज के इस मशीनी जीवन में सबको कहाँ नसीब है - 'निंदिया आजा रे आजा' लोरी सुनाते बालों को सहलाते स्नेहिल हाथ. कहाँ है सबके जीवन में ऐसे लोग जो कह सकें -'मेरी निंदिया तोहे मिल जाये ,मैं जागूं तू सो जाये.' ऐसा कह देने वाले मिल भी जाएँ तो भी क्या  होता है ? क्या वस्तुतः कोई अपनी आँखों की नींद बाँट पाता है ?
           असंयमित दिनचर्या एवं तानव के इस युग में अनिद्रा एक आम बीमारी है . हर पांच में से एक व्यक्ति ग्रस्त है - अनिद्रा से. अनिद्रा के कारण मन की बेचैनी ,तन की छटपटाहट और तारे गिनने की अभिशप्त आँखें ....! कितनी पीड़ादायिनी होती है दिन की आपाधापी के बाद , रात में भी शिथिलता और थकान .
          फिर कैसे बुलाएं ? कैसे मनाएं पलकों से रूठी हुई नींद को? है कोई उपाय जिससे मान जाए हमारी रूठी हुई निंदिया और समा जाये हमारी आँखों में - सपनों का संसार लिए .
--सौम्या अपराजिता

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